Monday, June 8, 2020

जीन पियाजे का संज्ञानात्मक सिद्धांत

जीन पियाजे का संज्ञानात्मक सिद्धांत 
जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत जीन पियाजे (1896- 1980) एक प्रमुख स्विच मनोवैज्ञानिक है जिनका प्रशिक्षण प्राणी विज्ञान में हुआ था। जिनका प्रशिक्षण प्राणी विज्ञान में हुआ था अल्फ्रेड बिने की प्रयोगशाला में बुद्धि परीक्षणों के साथ जब कार्य कर रहे थे, उसी समय बालकों के संज्ञानात्मक विकास पर कार्य शुरू किए थे। यह है अवधि 1922-23 की थी। उन्होंने 1923 और 1932 के बीच में 5 पुस्तकें प्रकाशित की। जिसमें संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया। पियाजे के विकास के सिद्धांत से सबसे महत्वपूर्ण इस बात का पता चलता है कि प्याजे के अनुसार बालक में वास्तविकता के स्वरूप के बारे में चिंतन करने तथा उसे खोज करने की शक्ति न तो सिर्फ बालकों की परिपक्वता स्तर और न सिर्फ उसके अनुभवों पर निर्भर करता है, बल्कि इन दोनों की अंतः क्रिया द्वारा निर्धारित होती है।
पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत की पूर्णरूपेण व्याख्या करने के पहले इस सिद्धांत के कुछ महत्वपूर्ण संप्रत्यय हैं जिनकी व्याख्या करना उचित है इन संप्रदायों में निम्नांकित प्रमुख हैं-
1) अनुकूलन:- पियाजे के अनुसार बालकों में वातावरण के साथ समझ समंजन करने की एक जन्मजात प्रवृत्ति होती है। जिसे अनुकूलन कहा जाता है। उन्होंनें दो उपक्रियाएं बताई हैं- आत्मसात्करण तथा समायोजन। इन दोनों उपप्रक्रियाओं में समानता यह है कि वे दोनों ही स्वयं एक वातावरण की वस्तुओं के बारे में सूचना प्राप्त करने की मूल योजना हैं ।आत्मसात्करण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें बालक समस्या के समाधान के लिए या वास्तविकता से समंजन करने के लिए पूर्व सीखी गई योजनाओं व मानसिक प्रक्रियाओं का सहारा लेता है जैसे- यदि शिशु किसी वस्तु को उठाकर अपने मुंह में रख लेता है तो यही आत्मसात्करण का उदाहरण होगा क्योंकि वह वस्तु को एक परिचित क्रिया अथवा खाने की क्रिया के साथ आत्मसात कर रहा है। कभी-कभी ऐसा होता है कि वास्तविकता से समंजन करने में पहले की परिचित योजना या मानसिक प्रक्रिया से काम नहीं चलता है। ऐसी स्थिति में बालक अपनी योजना, संप्रत्यय या व्यवहार में परिवर्तन लाता है ताकि वह नए वातावरण के साथ अनुकूलन या समंजन कर सके। जैसे- यदि कोई बालक यह जानता है कि 'कुत्ता' क्या होता है परंतु एक बिल्ली को देखकर जब वह अपने मानसिक संप्रत्यय में परिवर्तन कर बिल्ली की कुछ विशेषताओं पर गौर करता है तो यह समायोजन का उदाहरण होगा।
2) साम्यधारण :- साम्यधारण का संप्रत्यय अनुकूलन के संप्रत्यय से मिलता-जुलता है। साम्यधारण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा बालक आत्मसात्करण तथा समायोजन की प्रक्रियाओं के बीच एक संतुलन कायम करता है। इस तरह से साम्यधारण एक तरह की आत्म-नियंत्रण प्रक्रिया है। पियाजे का कहना था कि जब बालक के सामने ऐसी परिस्थिति या समस्या आती है। जिसका उसे कभी अनुभव नहीं हुआ था तो इससे उसमें एक तरह का संज्ञानात्मक असंतुलन उत्पन्न होता है जिसे दूर करने के लिए या जिसमें संतुलन लाने के लिए वह आत्मसात्करण या समायोजन या दोनों ही प्रक्रियाएँ प्रारंभ कर देता है।
3) संरक्षण:- पियाजे के सिद्धांत में यह एक महत्वपूर्ण संप्रत्यय है। संरक्षण से तात्पर्य वातावरण में परिवर्तन तथा स्थिरता को पहचानने एवं समझने की क्षमता तथा किसी वस्तु के रूप रंग में परिवर्तन को उस वस्तु के तत्वों में परिवर्तन से अलग करने की क्षमता से होता है। पियाजे के सिद्धांत का यह एक महत्वपूर्ण संप्रत्यय है। जिस पर मनोवैज्ञानिकों ने सबसे अधिक शोध किया है।
4) संज्ञानात्मक संरचना:- किसी बालक के मानसिक संगठन या मानसिक क्षमताओं के सेट को संज्ञानात्मक संरचना कहा जाता है। टैन्नर 1983 के शब्दों में "किसी बालक के मानसिक संगठन या क्षमताओं को ही संज्ञानात्मक संरचना कहा जाता है। संज्ञानात्मक संरचना के आधार पर एक 7 साल के बालक को 3 साल के बालक से भिन्न समझा जाता है।
5) मानसिक संक्रिया:- जब भी बालक किसी समस्या के समाधान पर चिन्तन करता है। वह मानसिक संक्रिया करते समझा जाता है। अतः पियाजे के सिद्धांत में मानसिक संक्रिया चिन्तन का एक प्रमुख साधन है। इस तरह से कहा जा सकता है कि संज्ञानात्मक संरचना की सक्रियता ही मानसिक संक्रिया है।
6) स्कीम्स:- व्यवहारों के संगठन पैटर्न को जिसे आसानी से दोहराया जा सकता है, स्कीम्स कहा जाता है। जैसे- बालक स्कूल जाने के लिए जब अपना किताब- कापी वर्ग रूटीन के अनुसार लेता है, स्कूल-ड्रेस पहनता है। जूते पहनता तो व्यवहारों के ये सभी संगठित पैटर्न को स्कीम्स कहा जाता है। स्कीम्स का संबंध मानसिक संक्रिया तथा संज्ञानात्मक संरचना से काफी संबंधित संप्रत्यय है।
7) स्कीमा:- स्कीमा सुनने में स्कीम्स से काफी मिलता-जुलता लगता है, परंतु सच्चाई यह है कि इसका अर्थ उससे भिन्न है। पियाजे का स्कीमा से तात्पर्य एक ऐसी मानसिक संरचना से होता है। जिसका सामान्यीकरण किया जा सके। स्कीमा इस तरह मानसिक संक्रिया तथा संज्ञानात्मक संरचना से काफी संबंधित संप्रत्यय है।
8) विकेन्द्रण:- पियाजे के अनुसार विकेन्द्रण से तात्पर्य किसी वस्तु या चीज के बारे में वस्तुनिष्ठ या वास्तविक ढंग से सोचने की क्षमता से होता है। इनका कहना था कि 3-4 महीने की उम्र के बालक में ऐसी क्षमता नहीं होती है बल्कि वह किसी वस्तु या चीज के बारे में आत्मकेन्द्रित ढंग से सोचता है। परन्तु उम्र बीतने पर जैसे जब वह 23-24 महीने का हो जाता है, तो उसमें वस्तु या चीज के बारे में वास्तविक ढंग से या वस्तुनिष्ठ ढंग से सोचने की क्षमता विकसित हो जाती है। 
जीन पियाजे ने बालकों के चिंतन या संज्ञानात्मक विकास की व्याख्या करने के लिए एक चार-अवस्था सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। इस सिद्धांत में पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास की व्याख्या चार प्रमुख अवस्थाओं में बाँटकर किया है। वे अवस्थाएँ निम्नांकित हैं-
1) संवेदी पेशीय अवस्था 
2) प्राॅक संक्रियात्मक अवस्था
3) ठोस संक्रिया की अवस्था
4) औपचारिक संक्रिया की अवस्था
इन अवस्थाओं का वर्णन करने से पहले यह आवश्यक है कि इस सिद्धांत की प्रमुख पूर्वकल्पनाओं पर विचार कर लिया जाए। इस सिद्धांत की निम्नांकित चार प्रमुख पर पूर्वकल्पनाएं हैं-
1) मानव शिशु जन्म से ही वातावरण की अनिश्चितता को दूर करने के लिए अनुकूलन करता है तथा संबंधित एवं समन्वित ढंग से इस क्षमता को विकसित करने की कोशिश करता है।
2) जब बालकों के सामने कोई ऐसी घटना घटती है जिसे उसका पहले कभी अनुभव नहीं हुआ है तो इससे उसमें एक तरह का संज्ञानात्मक असंतुलन उत्पन्न हो जाता है। जिसे वह आत्मसात्करण तथा समायोजन के माध्यम से संतुलित करता है।
3) साम्यधारण की प्रक्रिया सिर्फ बालकों की गत अनुभूतियों पर ही निर्भर नहीं करती है बल्कि उनकी शारीरिक परिपक्वता के स्तर पर भी यानी उसके स्नायुमंडल, संवेदी अंगों, पेशीय अंगों के विकास पर भी निर्भर करता है।
4) साम्यधारण का प्रभाव होता है कि बालकों की संज्ञानात्मक संरचना अधिक विकसित हो जाती है। जिसके कारण संज्ञानात्मक विकास की चारों अवस्थाओं में उनका विकास समरेखित होता है। 
संज्ञानात्मक विकास की चार अवस्थाओं का वर्णन निम्नांकित है:-
1• संवेदी पेशीय अवस्था:- यह अवस्था जन्म से 2 साल तक की होती है। इस अवस्था में शिशुओं में अन्य क्रियाओं के अलावा शारीरिक रूप से चीजों को इधर-उधर करना, वस्तु की पहचान करने की कोशिश करना, किसी चीज को पकड़ना और प्रायः उसे मुंह में डालकर उसका अध्ययन करना आदि प्रमुख हैं। पियाजे ने यह बतलाया है कि इस अवस्था में शिशुओं का बौद्धिक विकास या संज्ञानात्मक विकास निम्नांकित छह उप-अवस्थाओं से होकर गुजरता है-
● पहली अवस्था को प्रतिवर्त क्रियाओं की अवस्था कहा जाता है जो जन्म से 30 दिन तक की होती है। इस अवस्था में बालक मात्र प्रतिवर्त क्रियाएँ करता है। इन प्रतिवर्त क्रियाओं में चूसने का प्रतिवर्त सबसे प्रबल होता है।
● दूसरी अवस्था प्रमुख वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था है जो 1 महीने से 4 महीने की अवधि का होता है। इस अवस्था में शिशु को प्रतिवर्त क्रियाएं उनकी अनुभूतियों द्वारा कुछ हद तक परिवर्तित होती हैं, दोहराई जाती हैं और एक दूसरे के साथ अधिक समन्वित हो जाती हैं
इन व्यवहारों को प्रधान इसलिए कहा जाता है क्योंकि वे उनके शरीर की प्रमुख प्रतिवर्त क्रियाएं होती हैं एवं उन्हें वृत्तीय इसलिए कहा जाता है क्योंकि वे दोहराई जाती हैं।● तीसरी अवस्था गौण वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था होती है जो 4 से 8 महीने तक की अवधि की होती है। इस अवस्था में शिशु वस्तुओं को उलटने-पुलटने तथा छूने पर अधिक ध्यान देता है न कि अपने शरीर की प्रतिक्रियाओं पर। इसके अलावा वह जान-बूझकर कुछ ऐसी अनुक्रियाओं को दोहराता है जो उसे सुनने में रोचक एवं मनोरंजक लगता है।
● गौण स्कीमैटा के समन्वय की अवस्था चौथी प्रमुख अवस्था है जो 8 महीने से 12 महीने की अवधि की होती है। इस अवधि में बालक उद्देश्य तथा उस पर पहुंचने के साधन में अंतर करना प्रारंभ कर देता है। जैसे- यदि किसी खिलौनों को छुपा दिया जाता है, तो वह उसके लिए वस्तुओं को इधर-उधर हटाते हुए खोज जारी रखता है। इस अवधि में शिशु वयस्कों द्वारा किए जाने वाले कार्यों का अनुकरण भी प्रारंभ कर देता है। इस अवधि में शिशु जो स्कीमा सीखते हैं, उनका वे एक परिस्थिति से दूसरी परिस्थिति में सामान्यीकरण करना भी प्रारंभ कर देते हैं।
● तृतीय वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था 12 महीने से 18 महीने की अवधि की होती है। इस अवस्था में बालक वस्तुओं के गुणों को प्रयास एवं त्रुटि विधि से सीखने की कोशिश करता है। इस अवस्था में उनकी शारीरिक क्रियाओं में अभिरुचि कम हो जाती है और वे स्वयं कुछ वस्तुओं को लेकर प्रयोग करते हैं। बालकों में उत्सुकता अभिप्रेरक अधिक प्रबल हो जाता है तथा उनमें वस्तुओं को ऊपर से नीचे गिराकर अध्ययन करने की प्रवृत्ति अधिक होती है।
● मानसी संयोग द्वारा नए साधनों की खोज की अवस्था अंतिम अवस्था है जो 18 महीने से 24 तक की अवधि की होती है। यह वह अवस्था होती है जिसमें बालक वस्तुओं के बारे में चिंतन प्रारंभ कर देता है। इस अवधि में बालक उन वस्तुओं के प्रति भी अनुक्रिया करना प्रारंभ कर देता है जो सीधे दृष्टिगोचर नहीं होती हैं। इस गुण को वस्तु-स्थायित्व कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, बालक तीन-चार महीने की उम्र में जो यह सोचते थे कि जब कोई वस्तु उनके सामने होती है तब उसका अस्तित्व बना होता है परंतु जब वस्तु उनके सामने से हट जाती है तब उसका अस्तित्व ही खत्म हो जाता है, को अब उसका चिन्तन अधिक वास्तविक हो जाता है और अब वह यह सोचता है कि जब वस्तु उसके सामने नहीं भी होती है तो उसका अस्तित्व बना होता है। इसे ही वस्तु स्थायित्व का गुण कहा जाता है
2) प्राॅक संक्रियात्मक अवस्था:- यह अवस्था दो वर्ष से सात वर्ष तक चलती है। इस अवस्था की दो प्रमुख विशेषताएं होती है प्रथम, संवेदी-गामक संगठन का संवर्धन तथा दूसरा, कार्यो के आत्मीकरण का प्रारम्भ जिससे संक्रियाओं का निर्माण होने लगे। साथ ही, इस अवस्था में संकेतात्मक कार्यो का प्रादुर्भाव तथा भाषा का प्रयोग भी होता है। इस अवस्था को दो भागों में बांटा जा सकता है -
(i) पूर्व-प्रत्ययात्मक काल
(ii) आंत-प्रज्ञ काल
पूर्व-प्रत्यात्मक काल लगभग 2 वर्ष से 4 वर्ष तक चलता है। इस स्तर का बच्चा सूचकता विकसित कर लेता है अर्थात किसी भी चीज के लिए प्रतिभा, शब्द आदि का प्रयोग कर लेता है। छोटा बच्चा माँ की प्रतिमा रखता है। बालक विभिन्न घटनाओं और कार्यो के संबंध में क्यों और कैसे जानने में रूचि रखते हैं। इस अवस्था में भाषा विकास का विशेष महत्व होता है। दो वर्ष का बालक एक या दो शब्दों के वाक्य बोल लेता है जबकि तीन वर्ष का बालक आठ-दस शब्दों के वाक्य बोल लेता है। आंत-प्रज्ञ चिन्तन की अवस्था 4 वर्ष से 7 वर्ष तक चलती है। बालक वातावरण में जैसा दिखता है वैसी प्रतिक्रिया देता है। उसमें तार्किक चिन्तन की कमी होती है। अर्थात बालक का चिन्तन प्रत्यक्षीकरण से प्रभावित होती है। उदाहरण के लिए एक गिलास पानी को यदि किसी चौड़े बर्तन में लोट देते हैं और बच्चे से पूछे कि “पानी की मात्रा उतनी ही है या कम या अधिक हो गयी। तो बच्चा कहेगा “चौड़े बर्तन में पानी कम है। क्योंकि इस पानी की सतह नीची है।” ऐसा बालक द्वारा कारण व परिणाम को अलग न कर पाने के कारण होता है। इस अवस्था में बच्चे में निम्न प्रकार की विशेषताएं पाई जाती हैं :
(a) बच्चा आने आस – पास की वस्तुओं और प्राणियों व शब्दों में संबंध स्थापित करना सीख जाते हैं ।
(b) बच्चे प्रायः खेल व अनुकरण द्वारा सीखते है ।
(C) पियाजे कहते हैं कि इस अवस्था में 4 वर्ष तक के (e) बच्चे निर्जीव क्स्तुओं को सजीव वस्तुओँ के रूप में समझते हैं।
(e) बच्चे आने विचार को सही मानते है ।बच्चे समझते हैँ कि सारी दुनिया उन्हीं के इर्द र्गिद है । इसे पियाजे के आत्मकेनिद्रकता ( Ego centerism ) का नाम दिया है।
(f) बच्चे भाषा सीखने लगते हैं ।
(g) बच्चे चिन्तान करना भी शुरू कर देते हैं ।
(h) छः वर्ष तक आते – आते बच्चा मूति – प्रत्ययों के साथ अमूर्त प्रत्ययों का भी निर्माण करने लगते हैं ।
(i) वे रटना शुरू करते है । अर्थात् वे ग्टकर सीखते हैं न कि समझकार ।
(j) बच्चा स्वार्थी नहीं होता है ( इस अवस्था में )
(k) धीरे – धीरे वह प्रतीकों को ग्रहण करना सीखता है ।
(I) इस अक्स्था में बालक कार्य और कारण के संबंध से अनजान होते हैं ।
(m) मानासिक रूप से अभी अपरिपक्व होने के कारण वे समस्या – समाधन के दौरान समस्या के केवल एक ही पक्ष को जान पाते हैं ।
पियाजे ने प्राॅकसंक्रियात्मक चिन्तन की दो परिसीमाएँ भी बताई हैं जो इस प्रकार हैं-
1) जीववाद:- जीववाद बालकों के चिंतन में एक ऐसी परिसीमा की और बताता है जिसमें बालक निर्जीव वस्तुओं को सजीव समझता है। जैसे- कार, पंखा, हवा, बादल सभी उसके लिए सजीव होते हैं।
2) आत्मकेन्द्रिता:- इसमें बालक सिर्फ अपने ही विचार को सही मानता है। उसे कुछ इस तरह का विश्वास हो जाता है कि दुनिया के अधिकतर चीजें इसके इर्द-गिर्द घूमने लगती रहतीं हैं। जैसे भी तेजी से दौड़ता है, तो सूरज भी तेजी से चलना प्रारंभ कर देता है, उसकी गुड़िया वही देखती है जो वह देख रहा है आदि-आदि। पियाजे ने यह भी बताया कि जैसे-जैसे बालकों का संपर्क अन्य बालकों एवं भाई-बहनों से बढ़ता जाता है। उसके चिंतन में आत्मकेन्द्रिता की शिकायत कम होती जाती है।

3) ठोस संक्रिया की अवस्था:- यह अवस्था सात वर्ष से बारह वर्ष तक चलती है। इस अवस्था में यदि समस्या को स्थूल रूप में बालक के सामने प्रस्तुत किया जाता है जो वह समस्या का समाधान कर सकते हैं तथा तार्किक संक्रियाएँ करने लगते हैं। इस अवस्था में बालक गुणों के आधार पर वस्तुओं को वर्गीकृत कर सकते है जैसे एक गुच्छे में गुलाब व गुल्हड़ के फूल एक साथ हैं। बालक इनको अलग-अलग रख सकता है। वे चीजों को छोटे से बड़े के क्रम में ठीक प्रकार लगा लेते हैं। प्याजे ने इस अवस्था की सबसे बड़ी उपलब्धि बालक के द्वारा संरक्षण के प्रत्यय की प्राप्ति माना है। मूर्त संक्रियावस्था में बालकों में आत्मकेन्द्रित प्रवृत्ति कम होने लगती है और वे अपने बाह्य जगत को अधिक महत्व देने लगते है। जब मूर्त सक्रियाएं बालकों की समस्या का समाधान करने की दृष्टि से उपयुक्त नही रह पाती है तब बालक बौद्धिक विकास के अन्तिम चरण की ओर अग्रसर होने लगता है।
इस अवस्था की विशेषताओं का वर्णन पियाजे के अनुसार निम्न प्रकार से किया गया है ।
(a) यह अवस्था 7 वर्ष से 11 वर्ष की अवस्था तक चलती है अथवा मानी जाती है ।
(b)अधिक व्यवहारिक व यथार्थवादी होते हैं । ( इस अवस्था में बालक )
(c) र्तकशक्ति की क्षमता का विकास होना प्रारभ हो जाता है ।
(d) अमूर्त समस्याओं का समाधान वे अभी भी ढूंढ़ पाते हैं।
(e) इस अवस्था में बच्चे वस्तुओं को उनके गुणों के आधार पर पहचाना शुरू कर देते हैं ।
(f) चिन्तन में क्रमबद्धता का अभाव अभी भी होता हैं ।
(g) इस अवस्था में बालकों में कुछ क्षमताएं विकासित हो जाती हैं। जैसे – कंजर्वेशन अर्थात् जब कोई ज्ञान जो पदार्थ रूप मे बदल जाने के बाद भी मात्रा संख्या, भार और आयतन की द्वाष्टि से समान रह जाता है, उसे कंजर्वेशन कहते हैं ।
(h) संख्या बोध अर्थात् गणित को जानना व वस्तुओं को निनना शुरू कर देते हैं ।
(¡) इसके अलावा क्रमानुसार व्यवस्था , वर्गीकसण करना और पारस्परिक संबंधों आदि को जानने लगते हैं ।

4) औपचारिक संक्रिया की अवस्था:- औपचारिक सक्रिया की अवस्था ग्यारह वर्ष से पन्द्रह वर्ष तक चलती है। चिन्तन ज्यादा लचीला तथा प्रभावशाली हो जाता है। बालक अमूर्त बातों के सम्बन्ध में तार्किक चिन्ता करने की योग्यता विकसित कर लेता है। अर्थात शाब्दिक व सांकेतिक अभिव्यक्ति का प्रयोग तार्किक चिन्तन में करता है। बालक परिकल्पना बनाने लगता है, व्याख्या करने लगता है तथा निष्कर्ष निकालने लगता है। तर्क की अगमन तथा निगमन दोनों विधियों का प्रयोग वह करता है। अब समस्या को मूर्त रूप में प्रस्तुत करना जरूरी नही है। बालक का चिन्तन पूर्णत: क्रमबद्ध हो जाता है अत: दी गयी समस्या का तार्किक रूप से सम्भावित समाधान ढूंढ लेता है। प्याजे के अनुसार संज्ञानात्मक विकास की ये चार अवस्थाएं क्रम में होती है। दूसरी अवस्था में पहुंचने से पहले पहली अवस्था से गुजरना आवश्यक है। एक अवस्था से दूसरी अवस्था तक पहुंचने के क्रम में बालक में सोचने में मात्रात्मक के साथ-साथ गुणात्मक वृद्धि होती है। पियाजे के अनुसार, संज्ञानात्मक विकास की चतुर्थ व आन्तिम अक्स्था की विशेषताएं निम्न प्रकार है :
(a) बच्चा विसंगतियों को समझने की क्षमता रखता है ।
(b) बच्चे में वास्तविक अनुभवो को काल्पनिक रूप या परिस्थतियों में प्रक्षेपित करने की क्षमता आ जाती है ।
(c) बच्चा घटनाओं की परिकल्पाएं बनाने लगता है और इन्हें सत्यापित करने का भी प्रयास करता है ।
(d) बच्चा इस अवस्था में विचारोँ को संगठित करना और वगीकृत करना सीख जाता है ।
(e) बच्चे प्रतीको का अर्थ भी समझना शुरू कर देते हैं ।
(f) यह अवस्था 12 वर्ष से वयस्क होने तक चलती है ।
(g) यह अवस्था संज्ञानात्मक विकास की आन्तमि अवस्था होती है ।
(h) आयु बढ़ने के साथ – साथ बच्चों के अनुभव बढ़ने से (i) उनमें समस्या के समाधान की क्षमता भी विकसित होती हैँ ।
(j) उनके चिन्तन में क्रमबद्धता आने लगती है ।
पियाजे के सीखने के सिद्धान्त की विशेषताएं 

(1) सीखना एक क्रमिक एवं आरोही प्रक्रिया है।
(2) पियाजे के अनुसार सीखने का पर्यावरण और क्रिया मूल आवश्यकताएं हैं।
(3) बालक के अमूर्त चिन्तन पर उसकी शिक्षा का प्रभाव पड़ता है। निम्नस्तर पर अमूर्त चिन्तन कम व उच्च शिक्षा स्तर पर अमूर्त चिन्तन अधिक होता है।
(4) पियाजे के अनुसार औपचारिक संक्रिया अवस्था के बाद बालक की सम्पूर्ण बौद्धिक शक्ति का विकास हो जाता है और अपनी बौद्धिक क्षमताओं के प्रयोग से समस्या का समाधान क्रमबद्ध व तार्किक ढंग से कर सकता है।
(5) पियाजे के अनुसार बच्चों में चिन्तन एवं खोज करने की शक्ति उसकी जैविक परिपक्वता, अनुभव एवं इन दोनों की अन्तर्किया पर निर्भर करता है।

 पियाजे के सिद्धान्त का शिक्षा में उपयोग 

(1) पियाजे ने आने सिद्धांत का प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में करते हुए अनुकरण व खेल की क्रिया को महत्व दिया है । शिक्षकों को अनुकरण व खेल विधि से शिक्षण – कार्य करना चाहिए ।
(2) पियाजे कहते हैँ कि जो बच्चे सीखने में धीमे होते हैं उन्हें दण्ड नहीं देना चाहिए ।
(3) पियाजे के सिद्धांत के अनुसार आभिप्रेरणा और बालक दोनों ही अधिगम व विकास के लिए आवश्यक है । इन दोनों को शिक्षा में प्रयोग करना उचित होगा ।
(4) बच्चों को अपने आप करके सीखने का अवसर हमे प्रदान करना चाहिए ।
(5) 12 वर्ष की अवस्था के बच्चों को समस्या समाधान विधि से पढ़ाया जाना चाहिए क्योंकि 10 -12 वर्ष की आयु तक आते – आते बच्चों में यह क्षमता विकसित होने लगती है ।
(6) शिक्षकों व अन्य व्यकितयों को बच्चों की बुद्धि का मापन उसकी व्यवहारिक क्रियाओ के आयोग के आधार पर करना चाहिए ।
(7) बच्चा स्वयं और पर्यावरण से अंतः क्रिया द्वारा सीखता है । अतः हमें ( शिक्षको, माता – पिता ) बच्चे के लिए प्रेरणादायक माहौल का निर्माण कसना चाहिए ।
(8) इस सिद्धांत के आधार पर शिक्षक एवं अभिभावक बच्चों की र्तकशकित व विचारशक्ति को पहचान सकते हैं।
(9) इस सिद्धान्त ने बालकों को स्वक्रिया द्वारा सीखने पर बल दिया।
(10) पियाजे ने अनुकरण व खेल को महत्व दिया और शिक्षक को इन विधियों से पढ़़ाना चाहिये।
(11) सीखने में प्रगति न करने वालों को दण्ड नही देना चाहिये।
(12) पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास के अनुसार विभिन्न श्रेणियों को विभाजित किया। उसी के अनुसार किसी भी आयु के लिए पाठ्यक्रम निर्माण करना चाहिये।
(13) पियाजे ने बुद्धि का मापन उसके व्यावहारिक उपयोग (वातावरण के साथ अंतःक्रिया) की क्षमता के रूप में लिया जाता है। बुद्धि परीक्षण निर्माण में व्यावहारिक रूप में प्रयोग से सम्बन्धित क्रियाओं का उपयोग करना चाहिये।
(14) पियाजे के सिद्धान्त के अनुसार चालक (Drives) और अभिप्रेरणा (Motivation) अधिगम एवं विकास के लिए आवश्यक है। अतः शिक्षक को शिक्षण अधिगम में इसका प्रयोग करना चाहिये।
(15) पियाजे के अनुसार सीखना बालक के स्वयं और उसके पर्यावरण से अंतःक्रिया के फलस्वरूप होता है, अतः शिक्षकों एवं अभिभावकों को बालकों के लिए उचित मार्ग दर्शन करना चाहिये।

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