मानव व्यवहार एक गत्यात्मक व्यवहार होता है जिसमें क्रोध, अहंकार ईर्ष्या आदि का समन्वय होता है। वेदों में व्यवहार के विषय में कहा गया है कि मानव को कटुता कलुषता एवं तीक्ष्णता से दूर होना चाहिए। एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य के साथ मधुर व्यवहार ही नहीं अपितु मधुर भाषा का भी प्रयोग करना चाहिए। जिसके विषय में ऋग्वेद में कहा गया है-
आदित्यासो अदितयः स्याम पूर्देवत्रा वसवो मर्त्यत्रा।
सनेम मित्रावरुणा सनन्तो भवेम द्यावापृथिवी।। (7।52l।1)
इस मंत्र में कहा है हे मनुष्यों तुम विद्वानों के साथ निवास करते हुए सत्य, असत्य का विभाग करके सूर्य एवं भूमि के समान परोपकारी होते हुए विश्व के लिए प्राण और उदान के समान कल्याणकारी हो।
वेदों में मानव व्यवहार को उत्तम बनाने के लिए ऋग्वेद में कहा है कि व्यक्ति का व्यवहार एवं कार्य सभी प्राणियों को सुख प्रदान करने वाला , सूर्य की तरह प्रकाशित एवं वायु की भाँति प्राण देने वाला हो जिसका वर्णन प्रस्तुत मंत्र में है:-
विश्वेषामदितिर्यज्ञियानां विश्वेषामतिथिर्मानुषाणाम् ।
अग्निर्देवानामव आवृणानः सुमृव्ठीको भवतु जातवेदाः ।।(4।1।20)
वेदों में क्रोध को अहितकारी बताया गया है। जो व्यक्ति का स्वयं एवं समाज का अहित करता है। अतः ऋग्वेद में कहा गया है कि क्रोधी व्यक्ति से दूर रहना चाहिए और कहा गया है:-
परा हि मे विमन्यवः पतन्ति वस्यइष्टये।
वयो न वसतीरुप।। (1।25।4)
इस मंत्र में कहा गया है जैसे उड़ाये हुए पक्षी दूर जाके बसते हैं , वैसे ही क्रोधी जीव भी दूर जाकर बसें जिससे धर्म की हानि ना हो ना ही व्यवहार क्रोधी हो।
इस प्रकार ऋग्वेद में आज्ञाकारी एवं उत्तम व्यवहार का उपदेश दिया गया है।
सहस्त्राक्षो विचर्षणिरग्नी रक्षांसि सेधति।
होता गृणीत उक्थ्यः।। (1।79।12)
प्रस्तुत आज्ञाकारी व्यवहार के लिए कहा है कि विद्वानजन जिन कार्यों की आज्ञा देवें उन्हें करें और जिनका निषेध करें उन्हें छोड़ दें।
उदगादयमादित्यो विश्वेन सहसा सह।
द्विषन्तं मह्यं रन्धयन्मो अहं द्विषते रधम्।। (1।50।13)
अतः प्राण एवं बिजली के दृश्य सतव्यक्तियों से मित्रता करके प्रजा का पालन करना चाहिए
No comments:
Post a Comment