Tuesday, June 30, 2020

Achieve Success through Time Management

   
 Who does not want to be successful in life? Everyone! Every individual has a desire to be successful. How to achieve success? The question is heavy but the answer is very light. Yes! There’s a Mantra to everything in life. In the same way, we have various Mantras to succeed in life, out of which TIME MANAGEMENT is the best mantra. 
    Time management means completing a task properly within a given frame of time. It won't be wrong to say that Time Management means "Completing a task based on its importance and priority". Therefore, Time Management is ‘to implement and execute your tasks in a planned manner within a given timeframe’.
    In this fastidious and globalised world, the knowledge of time management becomes essential for the people working in any institute or organization. The institutes or organizations set a certain deadline for its employee to accomplish the task. In such a scenario it gets mandatory to complete the assigned work within a fixed period. Therefore, every individual working in such an environment should be well acquainted with time management.
    The world-renowned litterateur cum Prime Minister Winston Churchill has quoted: "Let our advance worrying become advance thinking and planning". But out of carefree attitude, people keep postponing important tasks; they think what matters if you do it today, tomorrow or the day after? What’s going to happen to you that you complete it so soon, you still have years to live and finish it! As a result of which the work never gets completed or even if it gets complete, it does not give the desired result.
    Nowadays, the effect of not managing time can be seen in today’s youth. As a result of not working according to the timetable, they waste more time than required. The youth does not get the results according to their hard work which creates frustration in them. They become escapist and pessimist. 
    The question arises “How to effectively manage time?” So, Time Management can be effectively achieved through a few common yet significant steps given below:
  1. Always keep a diary with you, write the time to complete the work and adhere to the set time.
  2. Before doing any task, make a list of them. Keep the order of tasks according to their importance and priority so that important work will be done on time.
  3. Before doing any work, divide it according to its priority by bifurcating it as per the Triple S Formula.
  • Urgent and Important Work: - Include very important tasks.
  • Important but not urgent: - This should include the work which is necessary but not important.
  •  Neither Urgent nor Important: - This should include tasks which are neither necessary nor important.
  1. Be candid: Do not take responsibility for another's work without completing your own. By doing this, your task will be completed on time and you will be saved from non-interested tasks.
  2. Allocate the work according to the qualification of the employee and take care not to put an excessive burden on anyone.
  3. Divide the big task into small parts so that the work becomes quick and easy.
  4. Do not get entangled in the solution of any problem, but seek advice from other colleagues, which will avoid wastage of time.
  5. Keep positive thinking so that it will be easy to overcome the difficulties that arise in the work.

    All aspiring individuals need to develop time management for achieving success. Thus by taking care of small things, any individual, institute or organization can achieve a higher peak of success in accomplishing tasks by better time management.

 

Monday, June 8, 2020

पठन कौशल व उसकी रणनीतियां

जब हम घर की भाषा और मातृभाषा या प्रथम भाषा की बात करते हैं तो इसके अन्तर्गत घर की भाषा, आस-पड़ोस की भाषा आ जाती है। जो बच्चा स्वाभाविक रुप से अपने घर और समाज के वातावरण से ग्रहण कर लेता है जो L1 भाषा कहलाती है। जो भाषा बच्चा स्कूल में सीखता है वह L2 भाषा कहलाती है।भाषा कौशल चार प्रकार के होते हैं। जिसमें LSRW (सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना। पढ़ना व्यक्ति को समृद्ध बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भाषा शब्दावली के साथ-साथ गहन अंतर्दृष्टि के परिणामस्वरूप समझ को स्थापित करती है। वेस्ट के अनुसार, "पढ़ना दृष्टि-ध्वनि-दृश्य की एक प्रक्रिया है।"
पढ़ने को प्रतीकों में डिकोडिंग की एक जटिल संज्ञानात्मक प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। जो अर्थ का निर्माण या व्युत्पन्न करने का आदेश देती है। इसलिए पढ़ने का मतलब है मुद्रित शब्दों या लिखित प्रतीकों के अर्थ को समझना। इसका तात्पर्य है पढ़ने के साथ समझना। संक्षिप्त तरीके से यह कहा जा सकता है कि पढ़ना सीखने की कुंजी है।
पढ़ने के अन्तर्गत आते हैं-
1- डिकोडिंग (Decoding)
2- समझना (Comprehension)
3- प्रतिधारण (Retention)
1) डिकोड: दिए गए प्रतीकों / लिपियों से अर्थ निकालना।
2) समझ: उस प्रतीक / लिपियों के अर्थ को समझने के लिए।
3) अवधारण: प्राप्त ज्ञान को बनाए रखने और सीखने के लिए।
भाषा विकास के लिए पढ़ना क्यों महत्वपूर्ण है?
• इससे मन का विकास होता है।
• यह है कि हम नई चीजों की खोज कैसे करते हैं।
• यह कल्पना को विकसित करता है।
• यह पाठकों के रचनात्मक पक्ष को विकसित करता है।
• यह शब्दावली का विस्तार करने में मदद करता है।
• यह महत्वपूर्ण है क्योंकि शब्द - बोले और लिखे गए - जीवन के निर्माण खंड हैं।
पठन कौशल के उद्देश्य:
1- सटीकता के साथ पढ़ना।
2- प्रवाह के साथ पढ़ना।
3- सही सर्वनाम के साथ पढ़ना।
4- समझ के साथ पढ़ना।
5- खुशी के साथ पढ़ना।
6- नई परिस्थितियों में विचारों के अनुप्रयोग के साथ पढ़ना।
पढ़ने में शामिल यांत्रिकी/ रणनीति: निम्नलिखित कौशल या यांत्रिकी पढ़ना में शामिल हैं-
1- आँखों की गति की क्षमता।
2- व्यापक आंख की अवधि की क्षमता।
3- अक्षरों, शब्दों और वाक्यों में दृश्य भेदभाव की क्षमता।
4-दृश्य संकेतों और भाषण ध्वनियों के बीच मानसिक लिंक की क्षमता।
5- शब्दों, वाक्यांशों और वाक्यों की व्याख्या की क्षमता।
6-मार्ग के केंद्रीय विषय को समझने की क्षमता।
पठन कौशल के तरीके: इन्हें श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है:
1- विश्लेषणात्मक विधि
2- सिंथेटिक विधि
1. विश्लेषणात्मक विधि
a- अलफाबेटिक विधि: जिसे एबीसी विधि या वर्तनी विधि भी कहा जाता है
b- सिलेबिक विधि: पढ़ने को पढ़ाने के लिए शब्दांश का उपयोग
c- फोनिक विधि: पढ़ने पढ़ाने के लिए अक्षरों की आवाज़ का उपयोग
2. सिंथेटिक विधि
a- शब्द विधि: जिसे लुक एंड साय विधि भी कहा जाता है
b- वाक्यांश विधि: सार्थक अर्थ बनाने वाले शब्दों के समूह का उपयोग
c- वाक्य विधि: यहाँ वाक्य भाषण की इकाई है
d- कहानी विधि: सार्थक कहानी बनाने वाले वाक्यों के समूह का उपयोग
पढ़ने के प्रकार:
पढ़ने के कुछ प्रकार हैं:
1- स्किमिंग
2-स्कैन
3- साइलेंट रीडिंग/ मौन पढ़न
4- सस्वर पठन
5- गहन पढ़ना
6- व्यापक पठन
1- स्किमिंग: पाठ के सामान्य विचार प्राप्त करने के लिए स्पीड रीडिंग तकनीक का उपयोग किया जाता है। मुख्य बिंदुओं को समझने के लिए पढ़ना तेजी से किया जाता है। सबसे महत्वपूर्ण जानकारी इकट्ठा करने के लिए स्किमिंग का उपयोग किया जाता है। इस प्रकार के पठन में, आँखें पाठ के ऊपर जाती हैं। स्किमिंग करते समय प्रत्येक शब्द को समझना आवश्यक नहीं है।
2- स्कैनिंग: विशिष्ट पठन कौशल जिसमें विशिष्ट जानकारी के लिए ग्रंथों के माध्यम से जल्दी से खोज शामिल है, यह कीवर्ड या वाक्यांश हो सकते हैं। यहां रीडिंग एक्टिविटी एक टेक्स्ट के माध्यम से तेजी से आवश्यक जानकारी प्राप्त करने के लिए की जाती है। स्कैनिंग का उपयोग किसी विशेष जानकारी को खोजने के लिए किया जाता है। इस प्रकार के पठन में, आंखें विशिष्ट जानकारी की तलाश में पाठ पर चलती हैं।
3- मौन पढ़ना: मौन पठन ध्यान और ऊर्जा को अर्थ पर ध्यान केंद्रित करने में सक्षम बनाता है और इसलिए ध्यान का एक विभाजन बचाता है जिसके परिणामस्वरूप जानकारी का अधिक से अधिक आत्मसात होता है। यह पढ़ने की गति, प्रवाह और समझ के साथ होता है। यह शब्दावली के विस्तार में भी मदद करता है। दूसरी ओर, इसका उपयोग छात्रों द्वारा उच्च कक्षाओं और स्वयं के लिए किया जा सकता है।
4- सस्वर: शिक्षक द्वारा या छात्रों द्वारा जोर से या मौखिक रूप से किया जाता है। यह सही उच्चारण, अभिव्यक्ति, तनाव और सूचना के कौशल को विकसित करने पर केंद्रित है। यह छात्रों को एक प्रभावी मूक पढ़ने के लिए तैयार करने का आधार है। यह संवेदी अंगों, आंखों, कानों और मुंह को भी प्रशिक्षित करने में मदद करता है।
5- गहन पढ़ना: इस तरह के रीडिंग में, सटीक समझ पर जोर देने के साथ विस्तृत जानकारी के लिए छोटे पाठ पढ़े जाते हैं। विशिष्ट जानकारी निकालने के लिए छोटे पाठों पर गहन पठन का उपयोग किया जाता है। इस प्रकार यह एक माइक्रो रीडिंग प्रकार है जो मिनट और पाठ के विस्तृत अध्ययन पर आधारित है। इसमें विस्तार के लिए बहुत सटीक सटीक पढ़ना शामिल है। यह कार्यात्मक व्याकरण के उपयोग पर भी जोर देता है।
6- व्यापक पढ़ना: लंबे समय तक पाठ पढ़ना, अक्सर आनंद के लिए और सभी समझ पर। व्यापक रीडिंग का उपयोग किसी विषय की सामान्य समझ प्राप्त करने के लिए किया जाता है। इसे रैपिड रीडिंग या इंडिपेंडेंट साइलेंट रीडिंग भी कहा जाता है। यह मार्ग / पाठ के अर्थ की समझ पर जोर देता है। इस प्रकार की पठन पढ़ने और जानकारी प्राप्त करने के लिए आनंद और लाभ विकसित करने में सहायक है। इस तरह के पढ़ने के लिए, सामग्री आम तौर पर छात्रों के मानसिक स्तर के अनुसार होती है।

जीन पियाजे का संज्ञानात्मक सिद्धांत

जीन पियाजे का संज्ञानात्मक सिद्धांत 
जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत जीन पियाजे (1896- 1980) एक प्रमुख स्विच मनोवैज्ञानिक है जिनका प्रशिक्षण प्राणी विज्ञान में हुआ था। जिनका प्रशिक्षण प्राणी विज्ञान में हुआ था अल्फ्रेड बिने की प्रयोगशाला में बुद्धि परीक्षणों के साथ जब कार्य कर रहे थे, उसी समय बालकों के संज्ञानात्मक विकास पर कार्य शुरू किए थे। यह है अवधि 1922-23 की थी। उन्होंने 1923 और 1932 के बीच में 5 पुस्तकें प्रकाशित की। जिसमें संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया। पियाजे के विकास के सिद्धांत से सबसे महत्वपूर्ण इस बात का पता चलता है कि प्याजे के अनुसार बालक में वास्तविकता के स्वरूप के बारे में चिंतन करने तथा उसे खोज करने की शक्ति न तो सिर्फ बालकों की परिपक्वता स्तर और न सिर्फ उसके अनुभवों पर निर्भर करता है, बल्कि इन दोनों की अंतः क्रिया द्वारा निर्धारित होती है।
पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत की पूर्णरूपेण व्याख्या करने के पहले इस सिद्धांत के कुछ महत्वपूर्ण संप्रत्यय हैं जिनकी व्याख्या करना उचित है इन संप्रदायों में निम्नांकित प्रमुख हैं-
1) अनुकूलन:- पियाजे के अनुसार बालकों में वातावरण के साथ समझ समंजन करने की एक जन्मजात प्रवृत्ति होती है। जिसे अनुकूलन कहा जाता है। उन्होंनें दो उपक्रियाएं बताई हैं- आत्मसात्करण तथा समायोजन। इन दोनों उपप्रक्रियाओं में समानता यह है कि वे दोनों ही स्वयं एक वातावरण की वस्तुओं के बारे में सूचना प्राप्त करने की मूल योजना हैं ।आत्मसात्करण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें बालक समस्या के समाधान के लिए या वास्तविकता से समंजन करने के लिए पूर्व सीखी गई योजनाओं व मानसिक प्रक्रियाओं का सहारा लेता है जैसे- यदि शिशु किसी वस्तु को उठाकर अपने मुंह में रख लेता है तो यही आत्मसात्करण का उदाहरण होगा क्योंकि वह वस्तु को एक परिचित क्रिया अथवा खाने की क्रिया के साथ आत्मसात कर रहा है। कभी-कभी ऐसा होता है कि वास्तविकता से समंजन करने में पहले की परिचित योजना या मानसिक प्रक्रिया से काम नहीं चलता है। ऐसी स्थिति में बालक अपनी योजना, संप्रत्यय या व्यवहार में परिवर्तन लाता है ताकि वह नए वातावरण के साथ अनुकूलन या समंजन कर सके। जैसे- यदि कोई बालक यह जानता है कि 'कुत्ता' क्या होता है परंतु एक बिल्ली को देखकर जब वह अपने मानसिक संप्रत्यय में परिवर्तन कर बिल्ली की कुछ विशेषताओं पर गौर करता है तो यह समायोजन का उदाहरण होगा।
2) साम्यधारण :- साम्यधारण का संप्रत्यय अनुकूलन के संप्रत्यय से मिलता-जुलता है। साम्यधारण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा बालक आत्मसात्करण तथा समायोजन की प्रक्रियाओं के बीच एक संतुलन कायम करता है। इस तरह से साम्यधारण एक तरह की आत्म-नियंत्रण प्रक्रिया है। पियाजे का कहना था कि जब बालक के सामने ऐसी परिस्थिति या समस्या आती है। जिसका उसे कभी अनुभव नहीं हुआ था तो इससे उसमें एक तरह का संज्ञानात्मक असंतुलन उत्पन्न होता है जिसे दूर करने के लिए या जिसमें संतुलन लाने के लिए वह आत्मसात्करण या समायोजन या दोनों ही प्रक्रियाएँ प्रारंभ कर देता है।
3) संरक्षण:- पियाजे के सिद्धांत में यह एक महत्वपूर्ण संप्रत्यय है। संरक्षण से तात्पर्य वातावरण में परिवर्तन तथा स्थिरता को पहचानने एवं समझने की क्षमता तथा किसी वस्तु के रूप रंग में परिवर्तन को उस वस्तु के तत्वों में परिवर्तन से अलग करने की क्षमता से होता है। पियाजे के सिद्धांत का यह एक महत्वपूर्ण संप्रत्यय है। जिस पर मनोवैज्ञानिकों ने सबसे अधिक शोध किया है।
4) संज्ञानात्मक संरचना:- किसी बालक के मानसिक संगठन या मानसिक क्षमताओं के सेट को संज्ञानात्मक संरचना कहा जाता है। टैन्नर 1983 के शब्दों में "किसी बालक के मानसिक संगठन या क्षमताओं को ही संज्ञानात्मक संरचना कहा जाता है। संज्ञानात्मक संरचना के आधार पर एक 7 साल के बालक को 3 साल के बालक से भिन्न समझा जाता है।
5) मानसिक संक्रिया:- जब भी बालक किसी समस्या के समाधान पर चिन्तन करता है। वह मानसिक संक्रिया करते समझा जाता है। अतः पियाजे के सिद्धांत में मानसिक संक्रिया चिन्तन का एक प्रमुख साधन है। इस तरह से कहा जा सकता है कि संज्ञानात्मक संरचना की सक्रियता ही मानसिक संक्रिया है।
6) स्कीम्स:- व्यवहारों के संगठन पैटर्न को जिसे आसानी से दोहराया जा सकता है, स्कीम्स कहा जाता है। जैसे- बालक स्कूल जाने के लिए जब अपना किताब- कापी वर्ग रूटीन के अनुसार लेता है, स्कूल-ड्रेस पहनता है। जूते पहनता तो व्यवहारों के ये सभी संगठित पैटर्न को स्कीम्स कहा जाता है। स्कीम्स का संबंध मानसिक संक्रिया तथा संज्ञानात्मक संरचना से काफी संबंधित संप्रत्यय है।
7) स्कीमा:- स्कीमा सुनने में स्कीम्स से काफी मिलता-जुलता लगता है, परंतु सच्चाई यह है कि इसका अर्थ उससे भिन्न है। पियाजे का स्कीमा से तात्पर्य एक ऐसी मानसिक संरचना से होता है। जिसका सामान्यीकरण किया जा सके। स्कीमा इस तरह मानसिक संक्रिया तथा संज्ञानात्मक संरचना से काफी संबंधित संप्रत्यय है।
8) विकेन्द्रण:- पियाजे के अनुसार विकेन्द्रण से तात्पर्य किसी वस्तु या चीज के बारे में वस्तुनिष्ठ या वास्तविक ढंग से सोचने की क्षमता से होता है। इनका कहना था कि 3-4 महीने की उम्र के बालक में ऐसी क्षमता नहीं होती है बल्कि वह किसी वस्तु या चीज के बारे में आत्मकेन्द्रित ढंग से सोचता है। परन्तु उम्र बीतने पर जैसे जब वह 23-24 महीने का हो जाता है, तो उसमें वस्तु या चीज के बारे में वास्तविक ढंग से या वस्तुनिष्ठ ढंग से सोचने की क्षमता विकसित हो जाती है। 
जीन पियाजे ने बालकों के चिंतन या संज्ञानात्मक विकास की व्याख्या करने के लिए एक चार-अवस्था सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। इस सिद्धांत में पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास की व्याख्या चार प्रमुख अवस्थाओं में बाँटकर किया है। वे अवस्थाएँ निम्नांकित हैं-
1) संवेदी पेशीय अवस्था 
2) प्राॅक संक्रियात्मक अवस्था
3) ठोस संक्रिया की अवस्था
4) औपचारिक संक्रिया की अवस्था
इन अवस्थाओं का वर्णन करने से पहले यह आवश्यक है कि इस सिद्धांत की प्रमुख पूर्वकल्पनाओं पर विचार कर लिया जाए। इस सिद्धांत की निम्नांकित चार प्रमुख पर पूर्वकल्पनाएं हैं-
1) मानव शिशु जन्म से ही वातावरण की अनिश्चितता को दूर करने के लिए अनुकूलन करता है तथा संबंधित एवं समन्वित ढंग से इस क्षमता को विकसित करने की कोशिश करता है।
2) जब बालकों के सामने कोई ऐसी घटना घटती है जिसे उसका पहले कभी अनुभव नहीं हुआ है तो इससे उसमें एक तरह का संज्ञानात्मक असंतुलन उत्पन्न हो जाता है। जिसे वह आत्मसात्करण तथा समायोजन के माध्यम से संतुलित करता है।
3) साम्यधारण की प्रक्रिया सिर्फ बालकों की गत अनुभूतियों पर ही निर्भर नहीं करती है बल्कि उनकी शारीरिक परिपक्वता के स्तर पर भी यानी उसके स्नायुमंडल, संवेदी अंगों, पेशीय अंगों के विकास पर भी निर्भर करता है।
4) साम्यधारण का प्रभाव होता है कि बालकों की संज्ञानात्मक संरचना अधिक विकसित हो जाती है। जिसके कारण संज्ञानात्मक विकास की चारों अवस्थाओं में उनका विकास समरेखित होता है। 
संज्ञानात्मक विकास की चार अवस्थाओं का वर्णन निम्नांकित है:-
1• संवेदी पेशीय अवस्था:- यह अवस्था जन्म से 2 साल तक की होती है। इस अवस्था में शिशुओं में अन्य क्रियाओं के अलावा शारीरिक रूप से चीजों को इधर-उधर करना, वस्तु की पहचान करने की कोशिश करना, किसी चीज को पकड़ना और प्रायः उसे मुंह में डालकर उसका अध्ययन करना आदि प्रमुख हैं। पियाजे ने यह बतलाया है कि इस अवस्था में शिशुओं का बौद्धिक विकास या संज्ञानात्मक विकास निम्नांकित छह उप-अवस्थाओं से होकर गुजरता है-
● पहली अवस्था को प्रतिवर्त क्रियाओं की अवस्था कहा जाता है जो जन्म से 30 दिन तक की होती है। इस अवस्था में बालक मात्र प्रतिवर्त क्रियाएँ करता है। इन प्रतिवर्त क्रियाओं में चूसने का प्रतिवर्त सबसे प्रबल होता है।
● दूसरी अवस्था प्रमुख वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था है जो 1 महीने से 4 महीने की अवधि का होता है। इस अवस्था में शिशु को प्रतिवर्त क्रियाएं उनकी अनुभूतियों द्वारा कुछ हद तक परिवर्तित होती हैं, दोहराई जाती हैं और एक दूसरे के साथ अधिक समन्वित हो जाती हैं
इन व्यवहारों को प्रधान इसलिए कहा जाता है क्योंकि वे उनके शरीर की प्रमुख प्रतिवर्त क्रियाएं होती हैं एवं उन्हें वृत्तीय इसलिए कहा जाता है क्योंकि वे दोहराई जाती हैं।● तीसरी अवस्था गौण वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था होती है जो 4 से 8 महीने तक की अवधि की होती है। इस अवस्था में शिशु वस्तुओं को उलटने-पुलटने तथा छूने पर अधिक ध्यान देता है न कि अपने शरीर की प्रतिक्रियाओं पर। इसके अलावा वह जान-बूझकर कुछ ऐसी अनुक्रियाओं को दोहराता है जो उसे सुनने में रोचक एवं मनोरंजक लगता है।
● गौण स्कीमैटा के समन्वय की अवस्था चौथी प्रमुख अवस्था है जो 8 महीने से 12 महीने की अवधि की होती है। इस अवधि में बालक उद्देश्य तथा उस पर पहुंचने के साधन में अंतर करना प्रारंभ कर देता है। जैसे- यदि किसी खिलौनों को छुपा दिया जाता है, तो वह उसके लिए वस्तुओं को इधर-उधर हटाते हुए खोज जारी रखता है। इस अवधि में शिशु वयस्कों द्वारा किए जाने वाले कार्यों का अनुकरण भी प्रारंभ कर देता है। इस अवधि में शिशु जो स्कीमा सीखते हैं, उनका वे एक परिस्थिति से दूसरी परिस्थिति में सामान्यीकरण करना भी प्रारंभ कर देते हैं।
● तृतीय वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था 12 महीने से 18 महीने की अवधि की होती है। इस अवस्था में बालक वस्तुओं के गुणों को प्रयास एवं त्रुटि विधि से सीखने की कोशिश करता है। इस अवस्था में उनकी शारीरिक क्रियाओं में अभिरुचि कम हो जाती है और वे स्वयं कुछ वस्तुओं को लेकर प्रयोग करते हैं। बालकों में उत्सुकता अभिप्रेरक अधिक प्रबल हो जाता है तथा उनमें वस्तुओं को ऊपर से नीचे गिराकर अध्ययन करने की प्रवृत्ति अधिक होती है।
● मानसी संयोग द्वारा नए साधनों की खोज की अवस्था अंतिम अवस्था है जो 18 महीने से 24 तक की अवधि की होती है। यह वह अवस्था होती है जिसमें बालक वस्तुओं के बारे में चिंतन प्रारंभ कर देता है। इस अवधि में बालक उन वस्तुओं के प्रति भी अनुक्रिया करना प्रारंभ कर देता है जो सीधे दृष्टिगोचर नहीं होती हैं। इस गुण को वस्तु-स्थायित्व कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, बालक तीन-चार महीने की उम्र में जो यह सोचते थे कि जब कोई वस्तु उनके सामने होती है तब उसका अस्तित्व बना होता है परंतु जब वस्तु उनके सामने से हट जाती है तब उसका अस्तित्व ही खत्म हो जाता है, को अब उसका चिन्तन अधिक वास्तविक हो जाता है और अब वह यह सोचता है कि जब वस्तु उसके सामने नहीं भी होती है तो उसका अस्तित्व बना होता है। इसे ही वस्तु स्थायित्व का गुण कहा जाता है
2) प्राॅक संक्रियात्मक अवस्था:- यह अवस्था दो वर्ष से सात वर्ष तक चलती है। इस अवस्था की दो प्रमुख विशेषताएं होती है प्रथम, संवेदी-गामक संगठन का संवर्धन तथा दूसरा, कार्यो के आत्मीकरण का प्रारम्भ जिससे संक्रियाओं का निर्माण होने लगे। साथ ही, इस अवस्था में संकेतात्मक कार्यो का प्रादुर्भाव तथा भाषा का प्रयोग भी होता है। इस अवस्था को दो भागों में बांटा जा सकता है -
(i) पूर्व-प्रत्ययात्मक काल
(ii) आंत-प्रज्ञ काल
पूर्व-प्रत्यात्मक काल लगभग 2 वर्ष से 4 वर्ष तक चलता है। इस स्तर का बच्चा सूचकता विकसित कर लेता है अर्थात किसी भी चीज के लिए प्रतिभा, शब्द आदि का प्रयोग कर लेता है। छोटा बच्चा माँ की प्रतिमा रखता है। बालक विभिन्न घटनाओं और कार्यो के संबंध में क्यों और कैसे जानने में रूचि रखते हैं। इस अवस्था में भाषा विकास का विशेष महत्व होता है। दो वर्ष का बालक एक या दो शब्दों के वाक्य बोल लेता है जबकि तीन वर्ष का बालक आठ-दस शब्दों के वाक्य बोल लेता है। आंत-प्रज्ञ चिन्तन की अवस्था 4 वर्ष से 7 वर्ष तक चलती है। बालक वातावरण में जैसा दिखता है वैसी प्रतिक्रिया देता है। उसमें तार्किक चिन्तन की कमी होती है। अर्थात बालक का चिन्तन प्रत्यक्षीकरण से प्रभावित होती है। उदाहरण के लिए एक गिलास पानी को यदि किसी चौड़े बर्तन में लोट देते हैं और बच्चे से पूछे कि “पानी की मात्रा उतनी ही है या कम या अधिक हो गयी। तो बच्चा कहेगा “चौड़े बर्तन में पानी कम है। क्योंकि इस पानी की सतह नीची है।” ऐसा बालक द्वारा कारण व परिणाम को अलग न कर पाने के कारण होता है। इस अवस्था में बच्चे में निम्न प्रकार की विशेषताएं पाई जाती हैं :
(a) बच्चा आने आस – पास की वस्तुओं और प्राणियों व शब्दों में संबंध स्थापित करना सीख जाते हैं ।
(b) बच्चे प्रायः खेल व अनुकरण द्वारा सीखते है ।
(C) पियाजे कहते हैं कि इस अवस्था में 4 वर्ष तक के (e) बच्चे निर्जीव क्स्तुओं को सजीव वस्तुओँ के रूप में समझते हैं।
(e) बच्चे आने विचार को सही मानते है ।बच्चे समझते हैँ कि सारी दुनिया उन्हीं के इर्द र्गिद है । इसे पियाजे के आत्मकेनिद्रकता ( Ego centerism ) का नाम दिया है।
(f) बच्चे भाषा सीखने लगते हैं ।
(g) बच्चे चिन्तान करना भी शुरू कर देते हैं ।
(h) छः वर्ष तक आते – आते बच्चा मूति – प्रत्ययों के साथ अमूर्त प्रत्ययों का भी निर्माण करने लगते हैं ।
(i) वे रटना शुरू करते है । अर्थात् वे ग्टकर सीखते हैं न कि समझकार ।
(j) बच्चा स्वार्थी नहीं होता है ( इस अवस्था में )
(k) धीरे – धीरे वह प्रतीकों को ग्रहण करना सीखता है ।
(I) इस अक्स्था में बालक कार्य और कारण के संबंध से अनजान होते हैं ।
(m) मानासिक रूप से अभी अपरिपक्व होने के कारण वे समस्या – समाधन के दौरान समस्या के केवल एक ही पक्ष को जान पाते हैं ।
पियाजे ने प्राॅकसंक्रियात्मक चिन्तन की दो परिसीमाएँ भी बताई हैं जो इस प्रकार हैं-
1) जीववाद:- जीववाद बालकों के चिंतन में एक ऐसी परिसीमा की और बताता है जिसमें बालक निर्जीव वस्तुओं को सजीव समझता है। जैसे- कार, पंखा, हवा, बादल सभी उसके लिए सजीव होते हैं।
2) आत्मकेन्द्रिता:- इसमें बालक सिर्फ अपने ही विचार को सही मानता है। उसे कुछ इस तरह का विश्वास हो जाता है कि दुनिया के अधिकतर चीजें इसके इर्द-गिर्द घूमने लगती रहतीं हैं। जैसे भी तेजी से दौड़ता है, तो सूरज भी तेजी से चलना प्रारंभ कर देता है, उसकी गुड़िया वही देखती है जो वह देख रहा है आदि-आदि। पियाजे ने यह भी बताया कि जैसे-जैसे बालकों का संपर्क अन्य बालकों एवं भाई-बहनों से बढ़ता जाता है। उसके चिंतन में आत्मकेन्द्रिता की शिकायत कम होती जाती है।

3) ठोस संक्रिया की अवस्था:- यह अवस्था सात वर्ष से बारह वर्ष तक चलती है। इस अवस्था में यदि समस्या को स्थूल रूप में बालक के सामने प्रस्तुत किया जाता है जो वह समस्या का समाधान कर सकते हैं तथा तार्किक संक्रियाएँ करने लगते हैं। इस अवस्था में बालक गुणों के आधार पर वस्तुओं को वर्गीकृत कर सकते है जैसे एक गुच्छे में गुलाब व गुल्हड़ के फूल एक साथ हैं। बालक इनको अलग-अलग रख सकता है। वे चीजों को छोटे से बड़े के क्रम में ठीक प्रकार लगा लेते हैं। प्याजे ने इस अवस्था की सबसे बड़ी उपलब्धि बालक के द्वारा संरक्षण के प्रत्यय की प्राप्ति माना है। मूर्त संक्रियावस्था में बालकों में आत्मकेन्द्रित प्रवृत्ति कम होने लगती है और वे अपने बाह्य जगत को अधिक महत्व देने लगते है। जब मूर्त सक्रियाएं बालकों की समस्या का समाधान करने की दृष्टि से उपयुक्त नही रह पाती है तब बालक बौद्धिक विकास के अन्तिम चरण की ओर अग्रसर होने लगता है।
इस अवस्था की विशेषताओं का वर्णन पियाजे के अनुसार निम्न प्रकार से किया गया है ।
(a) यह अवस्था 7 वर्ष से 11 वर्ष की अवस्था तक चलती है अथवा मानी जाती है ।
(b)अधिक व्यवहारिक व यथार्थवादी होते हैं । ( इस अवस्था में बालक )
(c) र्तकशक्ति की क्षमता का विकास होना प्रारभ हो जाता है ।
(d) अमूर्त समस्याओं का समाधान वे अभी भी ढूंढ़ पाते हैं।
(e) इस अवस्था में बच्चे वस्तुओं को उनके गुणों के आधार पर पहचाना शुरू कर देते हैं ।
(f) चिन्तन में क्रमबद्धता का अभाव अभी भी होता हैं ।
(g) इस अवस्था में बालकों में कुछ क्षमताएं विकासित हो जाती हैं। जैसे – कंजर्वेशन अर्थात् जब कोई ज्ञान जो पदार्थ रूप मे बदल जाने के बाद भी मात्रा संख्या, भार और आयतन की द्वाष्टि से समान रह जाता है, उसे कंजर्वेशन कहते हैं ।
(h) संख्या बोध अर्थात् गणित को जानना व वस्तुओं को निनना शुरू कर देते हैं ।
(¡) इसके अलावा क्रमानुसार व्यवस्था , वर्गीकसण करना और पारस्परिक संबंधों आदि को जानने लगते हैं ।

4) औपचारिक संक्रिया की अवस्था:- औपचारिक सक्रिया की अवस्था ग्यारह वर्ष से पन्द्रह वर्ष तक चलती है। चिन्तन ज्यादा लचीला तथा प्रभावशाली हो जाता है। बालक अमूर्त बातों के सम्बन्ध में तार्किक चिन्ता करने की योग्यता विकसित कर लेता है। अर्थात शाब्दिक व सांकेतिक अभिव्यक्ति का प्रयोग तार्किक चिन्तन में करता है। बालक परिकल्पना बनाने लगता है, व्याख्या करने लगता है तथा निष्कर्ष निकालने लगता है। तर्क की अगमन तथा निगमन दोनों विधियों का प्रयोग वह करता है। अब समस्या को मूर्त रूप में प्रस्तुत करना जरूरी नही है। बालक का चिन्तन पूर्णत: क्रमबद्ध हो जाता है अत: दी गयी समस्या का तार्किक रूप से सम्भावित समाधान ढूंढ लेता है। प्याजे के अनुसार संज्ञानात्मक विकास की ये चार अवस्थाएं क्रम में होती है। दूसरी अवस्था में पहुंचने से पहले पहली अवस्था से गुजरना आवश्यक है। एक अवस्था से दूसरी अवस्था तक पहुंचने के क्रम में बालक में सोचने में मात्रात्मक के साथ-साथ गुणात्मक वृद्धि होती है। पियाजे के अनुसार, संज्ञानात्मक विकास की चतुर्थ व आन्तिम अक्स्था की विशेषताएं निम्न प्रकार है :
(a) बच्चा विसंगतियों को समझने की क्षमता रखता है ।
(b) बच्चे में वास्तविक अनुभवो को काल्पनिक रूप या परिस्थतियों में प्रक्षेपित करने की क्षमता आ जाती है ।
(c) बच्चा घटनाओं की परिकल्पाएं बनाने लगता है और इन्हें सत्यापित करने का भी प्रयास करता है ।
(d) बच्चा इस अवस्था में विचारोँ को संगठित करना और वगीकृत करना सीख जाता है ।
(e) बच्चे प्रतीको का अर्थ भी समझना शुरू कर देते हैं ।
(f) यह अवस्था 12 वर्ष से वयस्क होने तक चलती है ।
(g) यह अवस्था संज्ञानात्मक विकास की आन्तमि अवस्था होती है ।
(h) आयु बढ़ने के साथ – साथ बच्चों के अनुभव बढ़ने से (i) उनमें समस्या के समाधान की क्षमता भी विकसित होती हैँ ।
(j) उनके चिन्तन में क्रमबद्धता आने लगती है ।
पियाजे के सीखने के सिद्धान्त की विशेषताएं 

(1) सीखना एक क्रमिक एवं आरोही प्रक्रिया है।
(2) पियाजे के अनुसार सीखने का पर्यावरण और क्रिया मूल आवश्यकताएं हैं।
(3) बालक के अमूर्त चिन्तन पर उसकी शिक्षा का प्रभाव पड़ता है। निम्नस्तर पर अमूर्त चिन्तन कम व उच्च शिक्षा स्तर पर अमूर्त चिन्तन अधिक होता है।
(4) पियाजे के अनुसार औपचारिक संक्रिया अवस्था के बाद बालक की सम्पूर्ण बौद्धिक शक्ति का विकास हो जाता है और अपनी बौद्धिक क्षमताओं के प्रयोग से समस्या का समाधान क्रमबद्ध व तार्किक ढंग से कर सकता है।
(5) पियाजे के अनुसार बच्चों में चिन्तन एवं खोज करने की शक्ति उसकी जैविक परिपक्वता, अनुभव एवं इन दोनों की अन्तर्किया पर निर्भर करता है।

 पियाजे के सिद्धान्त का शिक्षा में उपयोग 

(1) पियाजे ने आने सिद्धांत का प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में करते हुए अनुकरण व खेल की क्रिया को महत्व दिया है । शिक्षकों को अनुकरण व खेल विधि से शिक्षण – कार्य करना चाहिए ।
(2) पियाजे कहते हैँ कि जो बच्चे सीखने में धीमे होते हैं उन्हें दण्ड नहीं देना चाहिए ।
(3) पियाजे के सिद्धांत के अनुसार आभिप्रेरणा और बालक दोनों ही अधिगम व विकास के लिए आवश्यक है । इन दोनों को शिक्षा में प्रयोग करना उचित होगा ।
(4) बच्चों को अपने आप करके सीखने का अवसर हमे प्रदान करना चाहिए ।
(5) 12 वर्ष की अवस्था के बच्चों को समस्या समाधान विधि से पढ़ाया जाना चाहिए क्योंकि 10 -12 वर्ष की आयु तक आते – आते बच्चों में यह क्षमता विकसित होने लगती है ।
(6) शिक्षकों व अन्य व्यकितयों को बच्चों की बुद्धि का मापन उसकी व्यवहारिक क्रियाओ के आयोग के आधार पर करना चाहिए ।
(7) बच्चा स्वयं और पर्यावरण से अंतः क्रिया द्वारा सीखता है । अतः हमें ( शिक्षको, माता – पिता ) बच्चे के लिए प्रेरणादायक माहौल का निर्माण कसना चाहिए ।
(8) इस सिद्धांत के आधार पर शिक्षक एवं अभिभावक बच्चों की र्तकशकित व विचारशक्ति को पहचान सकते हैं।
(9) इस सिद्धान्त ने बालकों को स्वक्रिया द्वारा सीखने पर बल दिया।
(10) पियाजे ने अनुकरण व खेल को महत्व दिया और शिक्षक को इन विधियों से पढ़़ाना चाहिये।
(11) सीखने में प्रगति न करने वालों को दण्ड नही देना चाहिये।
(12) पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास के अनुसार विभिन्न श्रेणियों को विभाजित किया। उसी के अनुसार किसी भी आयु के लिए पाठ्यक्रम निर्माण करना चाहिये।
(13) पियाजे ने बुद्धि का मापन उसके व्यावहारिक उपयोग (वातावरण के साथ अंतःक्रिया) की क्षमता के रूप में लिया जाता है। बुद्धि परीक्षण निर्माण में व्यावहारिक रूप में प्रयोग से सम्बन्धित क्रियाओं का उपयोग करना चाहिये।
(14) पियाजे के सिद्धान्त के अनुसार चालक (Drives) और अभिप्रेरणा (Motivation) अधिगम एवं विकास के लिए आवश्यक है। अतः शिक्षक को शिक्षण अधिगम में इसका प्रयोग करना चाहिये।
(15) पियाजे के अनुसार सीखना बालक के स्वयं और उसके पर्यावरण से अंतःक्रिया के फलस्वरूप होता है, अतः शिक्षकों एवं अभिभावकों को बालकों के लिए उचित मार्ग दर्शन करना चाहिये।

Saturday, June 6, 2020

समय प्रबंधन से सफलता

    जीवन में सफल होना कौन नहीं चाहता अर्थात् सफलता प्रत्येक व्यक्ति की चाह होती है। जीवन में सफल होने के अनेक मूल मंत्र हैं जिसमें समय प्रबंधन सर्वोत्तम मंत्र है। हमें समय प्रबंधन का जीवंत उदाहरण प्रकृति से ग्रहण करना चाहिए क्योंकि प्रकृति समय के अनुरूप कार्य करती है। जैसे प्रतिदिन निश्चित समय पर रात और दिन का होना।

    समय प्रबंधन से तात्पर्य है किसी कार्य को तय वक्त में सही ढंग से करना। अतः कहा जा सकता है किसी कार्य को महत्व एवं प्राथमिकता के अनुरूप निर्धारित करके उसको सुनिश्चित समयावधि में सुव्यवस्थित रुप से क्रियान्वित करना समय प्रबंधन कहलाता है।

    समय प्रबंधन का ज्ञान किसी भी संस्थान या संगठन के लिए आवश्यक है क्योंकि कोई भी संस्थान या संगठन अपने यहाँ कार्यरत व्यक्तियों को कार्य पूर्ति करने के लिए एक निश्चित समयावधि निर्धारित करता है। जिसमें किसी भी कार्य को निश्चित् समयावधि में सम्पन्न करना अनिवार्य होता है। अतः किसी भी संगठन के प्रत्येक व्यक्ति को समय प्रबंधन आना चाहिए।

    विश्वप्रसिद्ध साहित्यकार हेमिग्वें सरीखे ने कहा है - व्यक्ति किसी भी कार्य को निष्पादित करने के लिए समय निर्धारण नहीं करता और उसे अनिश्चित-काल तक टालता रहता है। वह सोचता है-

आज करे सो कल कर, कल करे सो परसों।
जल्दी तुझको क्या पड़ी, अभी जीना है बरसों ।।

    जिसके फलस्वरूप वह कार्य पूर्ण नहीं होता या पूर्ण हो भी जाये तो उसका फल कार्य के अनुरूप नहीं मिलता। जिसका असर आज के युवाओं पर पलायनवादी और निराशावादी के रुप में पड़ रहा है। 
समय- सारिणी के अनुरूप कार्य न करने से किसी भी छोटे से छोटे कार्य को करने में आवश्यकता से अधिक समय नष्ट हो जाता है और उसका फल युवाओं को परिश्रम के अनुसार नहीं मिलता जो उनके अन्दर कुंठा उत्पन्न कर देता है।

प्रभावी ढंग से समय प्रबंधन कैसे करें?

1) अपने साथ एक डायरी रखें जिसमें कार्य को पूर्ण करने का समय लिखें और उस पर अमल करें ।
2)
प्रत्येक कार्य को करने से पहले उनकी सूची बनायें। कार्यों का क्रम उनकी महत्ता एवं प्राथमिकता के अनुरूप रखें। जिससे महत्वपूर्ण कार्य समय पर होगा।
3)
किसी भी कार्य को करने से पूर्व उसे प्राथमिकता के अनुरूप ट्रिपल एसफाॅर्मूला में विभाजित करें। 
i)
अत्यावश्यक एवं महत्वपूर्ण कार्य :- इसमें वह कार्य शामिल करें जो बहुत महत्वपूर्ण हों। 
ii)
अत्यावश्यक किन्तु महत्वपूर्ण नहीं :- इसमें वह कार्य शामिल करें जो आवश्यक हो किन्तु महत्वपूर्ण नहीं।क्या जरूरत है बड़ा करने की जिनके कम हैं उनके बड़े उनके पार्टनर कर देंगे सारे काम खुद ही करके ले जायेंगी क्या कुछ काम दूसरे के लिए भी छोड़ देने चाहिए
iii)
न ही अत्यावाश्यक न ही महत्वपूर्ण :- इसमें वह कार्य शामिल करें जो न आवश्यक हों न ही महत्वपूर्ण।
4)
स्पष्टवादी बनें। अपने कार्य को पूर्ण किये बिना किसी दूसरे के कार्य की जिम्मेदारी ना लें। इससे आपका अपना बनाया उद्देश्य समय पर पूर्ण होगा और अरुचिकर कार्य से बच जायेंगे।
5)
कार्य का आवंटन कर्मचारी की योग्यता के अनुरूप करें और ध्यान रखें किसी पर अत्यधिक बोझ ना पड़े। 
6)
बड़े कार्य को छोटे- छोटे भागों में विभाजित कर लें जिससे कार्य जल्दी एवं आसान हो जाये।
7)
किसी समस्या के समाधान में स्वयं ना उलझें अपितु अन्य सहयोगियों से सलाह लें जिससे समय व्यर्थ होने से बच जायेगा।
8)
सकारात्मक सोच रखें जिससे कार्य में उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों से निकल पाने में आसानी होगी।

    सफलता के लिए महत्वाकांक्षी व्यक्तियों के लिए आवश्यक है कि समय प्रबंधन को विकसित करें। इस प्रकार छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखने से कोई भी संस्थान या संगठन बेहतर समय प्रबंधन करके अपने कार्यों के द्वारा सफलता के उच्चतर शिखर को प्राप्त कर सकता है।


सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन (CONTINUOUS AND COMPREHENSIVE EVALUATION )


    शिक्षा का उद्देश्य बच्चों के सर्वांगीण विकास से है। छात्रों के सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखते हुए केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE) ने माध्यमिक कक्षाओं के लिए 2009-2010 में कंटीन्यूअस एंड काॅम्प्रिहेंसिव इवैल्यूसन (CCE) पैर्टन शुरू किया । जो शिक्षा का अधिकार कानून 2009 के तहत 6-14 वर्ष के छात्रों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करे। सतत् से तात्पर्य है कक्षा में पढ़ाते समय एवं पढ़ाने के बाद प्रतिदिन किया जाने वाला मूल्यांकन । जिससे छात्रों में पढ़ने में आने वाली कठिनाइयों का निदान प्रतिदिन किया जा सके। 

    व्यापक से तात्पर्य है पाठ समाप्ति पर उसके ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक पक्षों का मूल्यांकन ।
सतत् व्यापक मूल्यांकन से तात्पर्य गुणात्मक शिक्षा से ही नहीं है अपितु शिक्षा के साथ-साथ सीखने के भी सभी पक्षों के उद्देश्यों को पूरा करने से है।
1) ज्ञानात्मक पक्ष (Cognative) - ज्ञान, समझ/अवबोध , अनुप्रयोग, विश्लेषण,  संश्लेषण, मूल्यांकन 
2)भावात्मक पक्ष (Affective) - ग्रहण करना, अनुक्रिया, अनुमूलन, विचारना, व्यवस्थापन, मूल्य समूह का विशेषीकरण
3)क्रियात्मक/मनोगत्यात्मक पक्ष ( Psychomotor) - उद्दीपन, नियंत्रण,  कार्य करना, स्वभावीकरण, समायोजन, आदत निर्माण 

सतत् व्यापक मूल्यांकन (CCE) पैर्टन को बनाने के उद्देश्य -
1) लर्निंग प्रोसेस को स्टूडेंट फ्रेंडली बनाना 
2) सीखने के कठिनाई स्तर को कम करना
3) सीखने में आने वाली कठिनाइयों का निदान करना
4) उपचारात्मक शिक्षण को प्रोत्साहन देना
5) छात्र आत्म-मूल्यांकन पर बल देना

        किन्तु आज इस CCE पैर्टन ने छात्रों को कमजोर बना दिया है। आज छात्रों पर किताबों और प्रोजेक्ट का वर्कलोड़ इतना कर दिया है कि गुणात्मक शिक्षा समाप्त हो गयी है। कक्षा 1-8 तक के छात्रों के पाठ्यक्रम को भागों में विभाजित कर दिया गया है और परीक्षा वर्ष में चार बार करा दी गयी है। पहली परीक्षा में आया सिलेबस दूसरी परीक्षा में नहीं आता । बच्चों को सिखाने की अपेक्षा रटाने पर बल दिया जाने लगा। जिसका वर्तमान में यह असर हुआ कि छात्रों के 12th में नम्बर कम आ रहे हैं और कोई भी काॅम्पटेटिव इग्जाम पास नहीं कर पा रहे हैं । जो CCE पैर्टन बच्चों को तनावमुक्त करने के लिए बनाया गया था आज वह भविष्य में आने वाली सफलताओं के लिए समस्या बन गया है।
        इस प्रकार की समस्याओं को देखते हुए CBSE के चेयरमैन विनीत जोशी जी ने CCE पैर्टन पर नेशनल साइंटिफिक स्टडी शुरू की है। जिससे CCE पैर्टन में सुधार लाया जा सके और शिक्षा की गुणवत्ता बेहतर की जा सके । अतः आज आवश्यकता है कि शिक्षक पैर्टन की अपेक्षा शिक्षण विधि पर ध्यान दें। केवल व्याख्यान विधि को ही उपयोग में ना लें कक्षानुसार एवं पाठ्यानुसार शिक्षण विधि को उपयोग में लें । ज्यादा जूनियर कक्षाओं में Story telling विधि का प्रयोग ज्यादा करें जिससे छात्रों को पाठ्य ज्ञान लम्बे समय तक याद रहे।

सतत् व्यापक मूल्यांकन का मनोवैज्ञानिक असर
    सतत् व्यापक मूल्यांकन का  वर्तमान में यह असर हुआ कि छात्रों के बोर्ड एक्जाम में नम्बर कम रहे हैं, बौद्धिक क्षमता का ह्रास हो रहा है और कोई भी काॅम्पटेटिव इग्जाम पास नहीं कर पा रहे हैं जिससे छात्रों में तनाव बढ़ रहा है। जिसका असर उनके मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। आज आवश्यकता है अभिभावकों और शिक्षकों को समझदारी से बात करने की शिक्षक पैर्टन की अपेक्षा शिक्षण विधि पर ध्यान दें। केवल व्याख्यान विधि को ही उपयोग में ना लें कक्षानुसार एवं पाठ्यानुसार शिक्षण विधि को उपयोग में लें ज्यादा जूनियर कक्षाओं में Story telling विधि का प्रयोग ज्यादा करें जिससे छात्रों को पाठ्य ज्ञान लम्बे समय तक याद रहे। जिससे बौद्धिक क्षमता का विकास हो।अभिभावक अपने घर के वातावरण को मित्रवत् बनायें जिससे छात्रों का मानसिक स्वास्थ्य बेहतर रहे।



यौन शिक्षा (Sex education)

हमारे यहाँ Sex education का अभाव है लोगों को इसके विषय में पूर्ण जानकारी नहीं है। क्यों ना कुछ यौन शिक्षा के विषय में कुछ जाना समझा या बताया जाये? 

यौन शिक्षा के विषय में बात करने से पूर्व कुछ बिन्दु निर्धारित करते हैं कि - 

1) यौन शिक्षा क्या है ?

 2) यौन शिक्षा के उद्देश्य ?

3) यौन शिक्षा कब दी जाये?

4) यौन शिक्षा की आवश्यकता क्यों है?

5) यौन शिक्षा की पद्धति क्या होनी चाहिए ?

6) यौन शिक्षा का पाठ्यक्रम क्या हो?

7) यौन शिक्षा कौन दे (यह सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु है)?


यौन शिक्षा क्या है - किशोरों को उनके प्रजनन अंगों के विषय में सम्पूर्ण जानकारी प्रदान कराना यौन शिक्षा कहलाता है।

यौन शिक्षा का तात्पर्य युवक-युवतियों में अपने शरीर के प्रति ज्ञान का नया आयाम विकसित करने से है। यौन शिक्षा का अर्थ केवल शारीरिक संसर्ग से ही सम्बंधित  नहीं है बल्कि यौन शिक्षा के माध्यम से हम यौन जनित विभिन्न  जिज्ञासाओं, विभिन्न यौन जनक बीमारियों की जानकारी और उससे बचने के उपायों के प्रति जागरूक होते हैं। अगर सही तरीके से किशोर एवं किशोरियों को सेक्स से सम्बंधित सलाह दी जाय तो यौन रोगों में तथा यौन अपराधों में में भी कमी आ सकती है। यौन सम्बन्धी जिज्ञासाओं के सही समाधान न होने से युवा कहीं न कहीं गलत दिशा में भटक जाते हैं। यौन शिक्षा उन्हें अपने शरीर के प्रति, यौन  संबंधों के प्रति, यौन जनित बीमारियों के प्रति, सुरक्षित यौन संबंधों के प्रति, रिश्तों की गरिमा के प्रति सचेत करती है। 

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के अनुसार सेक्स एजुकेशन बेहतर समाज के निर्माण में अहम् भूमिका निभा सकती है। इस शिक्षा के माध्यम से एचआईवी/एड्स जैसी भयानक बीमारियों पर भी काबू पाया जा सकता है। सर्वे के अनुसार देश में १२% लड़कियां १५-१९ वर्ष की उम्र में ही माँ बन जाती हैं।

आज नेशनल हेल्थ मिशन के तहत सरकारी अस्पतालों में ARSH (Adolescent Reproductive & sexual health) के केंद्र खोले जा रहे हैं उनका यही काम ही है कि युवाओं को यौन स्वास्थ्य के बारे में बताएं।

यौन - शास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान फ्रायड कहते हैं कि छोटे छोटे शिशुओं में भी काम वासना होती है। जिसके कुछ प्रमाण मिलते हैं जो हमें यह मानने पर विवश कर देते हैं कि बच्चों में काम वासना होती है। उदाहरण - बच्चों का अपने एवं दूसरे के यौनांगों को ध्यान से देखना , बच्चों का हाथ प्रायः अपने यौनांगों पर होता है (मुख्यतः ऐसा लड़के शिशु में अधिक देखने को मिलता है)

डी एस एम एन आर यू के समाज कार्य विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डा. रूपेश कुमार सिंह के अनुसार किशोर एवं किशोरियों की जो उम्र होती है वह जीवन की बहुत ही महत्वपूर्ण अवस्था है। इस समय उनमें यौनाकर्षण होना स्वाभाविक है और उस यौनाकर्षण के बाद उनके दिमाग में  यौन क्रियाओं से सम्बंधित बहुत सारी जिज्ञासाएं होती हैं और उन जिज्ञासाओं को कैसे शांत किया जाय उसके लिए यौन शिक्षा बहुत महत्वपूर्ण है। दूसरी बात यह है कि बच्चे अपने परिवार में उन प्रश्नों के जवाब ढूढने की कोशिश करते हैं लेकिन जब उनको अपने अभिवावकों से जबाब नहीं मिल पाता है तो उस को जानने के लिए वे कभी-कभी गलत रास्ते पर भी चले जाते हैं। हमारे देश में बड़ी विडम्बना है कि यौनाकर्षण व यौन क्रियाओं से सम्बंधित बात करने के लिए कोई अच्छा साहित्य नहीं उपलब्ध है। बच्चे जिज्ञासा वश कभी-कभी सस्ते और अश्लील साहित्य की ओर आकर्षित हो जाते हैं जिसमें गलत प्रकार की सूचनाएं ही होती हैं।
अतः यौन शिक्षा किशोरों के शारीरिक , मानसिक एवं सामाजिक विकास के लिए आवश्यक है।

 यौन शिक्षा के उद्देश्य ~~• यौन शिक्षा के निम्न उद्देश्य हैं 

 1) यौनांगों की संरचना एवं कार्य से अवगत कराना।

2) यौन सम्बन्धी रोग व उनके उपचारों का ज्ञान देना।

3) प्रजनन क्रिया का महत्व समझाना 

4) विषम-लिंगीय सदस्य के साथ पवित्र पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित करने योग्य बनाना।

5) विषम-लिंगीय सदस्यों के प्रति उत्तरदायित्व समझने के लिए परिपक्व बनाना।

6) अनैतिक एवं असामाजिक कार्यों को रोकना।

7) अनैतिक तथा अप्राकृतिक यौन -कार्यों के दुष्परिणामों से अवगत कराना।


यौन शिक्षा कब ? ~: यौन शिक्षा का प्रारंभ प्रारंभिक किशोरावस्था से ही कर देना चाहिए जिससे बालक पूर्ण किशोर होने तक आते-आते यौन के सम्बन्ध में एक स्पष्ट तथा पवित्र धारणा बना सकें । किशोरावस्था में कदम रखने से पूर्व ही जब बच्चा स्कूल जाना प्रारंभ करे तब माता-पिता अपने बच्चों को प्यार से समझाएं कि अगर कोई शख्स उसे गलत तरीके से छूने, गुदगुदाने एवं गले लगाने की कोशिश करे, तो बिल्कुल मना कर दें और इसकी जानकारी अपने घर में माता-पिता या बड़े बुजुर्गों को दें क्योंकि बच्चों को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी माता-पिता एवं परिवार की होती है। अत: एहतियात के लिए उन्हें हमेशा सर्तक रहना जरूरी होता है। माता-पिता के लिए अपना बच्चा सबसे पहले होना चाहिए। अगर उसकी सुरक्षा बरतने में किसी अपने को बुरा भी लगे तो उसकी परवाह न करें। खास कर वर्किंग पैरेंट बच्चे की सुरक्षा को सुनिश्चित करें, तभी उसे घर पर अकेला छोड़ें. किसी भी स्थिति में अपने बच्चे को किसी गैर के साथ सोने के लिए न छोड़ें, न ही देर तक के लिए बाहर जाने दें।

"एक सर्वे में पाया भी गया है कि 54 प्रतिशत वैसे बच्चे यौन शोषण के शिकार होते हैं, जिनका केस तक दर्ज नहीं हो पाता है। माता-पता को इस विषय पर उदार सोच रख कर बच्चों को बचपन से सेक्स संबंधी सही जानकारी दें, ताकि वे खुद अपना बचाव कर सकें।"

उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं में आते आते बालक पूर्ण किशोर हो जाता है उस समय बच्चे को सही छूने और गलत छूने एवं गन्दे इशारों की पहचान तो हो जाती है किन्तु अपने शारीरिक विकास के बारे में जानकारी पूरी नहीं होती है। अतः उस समय शारीरिक बदलाव की जानकारी आवश्यक होती है जिसके लिए माता-पिता उन्हें उनके अन्दर होने वाली बदलाव को बतायें एवं उन बदलावों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण को विकसित करें उस समय माँ बाप के साथ साथ शिक्षक की भी मौलिक ड्यूटी बनती है कि उन्हें उस बदलाव के लिए मानसिक रुप से तैयार करें और उचित मनोवृत्ति का निर्माण करें ।

यौन शिक्षा की आवश्यकता ~: यौन शिक्षा की आवश्यकता मानसिक स्वास्थ्य एवं सकारात्मक दृष्टिकोण के लिए आवश्यक है क्योंकि यौन -सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति ना होने के भयंकर परिणाम होते हैं। उस समय मस्तिष्क में समस्या बनी रहती है जिसके कारण मन व्याकुल तथा बेचैन रहता है। कालांतर में ये समस्याएँ भाव-ग्रन्थियाँ पैदा कर व्यक्तित्व को कुसमायोजित कर देती हैं तथा बालक अपराध करने लगता है। भारतीय विद्यालयों में यौन -सम्बन्धी बालापराधों के कुछ निम्न रूप देखने को मिलते हैं -

1) Masturbation (हस्तमैथुन)
2) Obsence Magazines (अश्लील पत्रिकाएं )
3) Homosexuality (समलैंगिकता )
4) Pushing and Crushing (धक्का और दबाना)
5) Sex Talks (यौन सम्बन्धी बातचीत)
6) Obsence Notes (अश्लील टिप्पणियां)
7) Nudity(नग्नता)

यौन शिक्षा की व्यवस्था न होने एवं उसके अभाव के कारण समाज में निर्लज्जता का आरविर्भाव हो रहा है तथा कामुकता फैल रही है। ऐसे में कोमल अवस्था वाले किशोर उचित यौन-शिक्षा के अभाव में अनुचित, अवांछित तथा अनैतिक साधनों से अपनी अपरिपक्व कामुकता की प्यास बुझाते हैं। जिससे उनका नैतिक,  चारित्रिक, आर्थिक तथा शारीरिक पतन होता है।

 यौन-शिक्षा पद्धति ~: यह शिक्षा प्रदान करना बड़ा ही नाजुक कार्य है। जिसमें शिक्षक की थोड़ी सी गलती के भयानक परिणाम हो सकते हैं। अतः यह शिक्षा बहुत सावधानी के साथ देनी चाहिए। यौन शिक्षा देते समय शिक्षक यह सोच कर शिक्षा दे कि काम कोई अश्लील चीज नहीं है। सामान्य विषयों की तरह यौन शिक्षा भी प्रदान करनी चाहिए। यौन शिक्षा प्रदान करते समय यदि शिक्षक हँसता है , संकोच करता है या लज्जा अनुभव करता है तो वह यौन शिक्षा के महान उद्देश्यों को प्राप्त नहीं कर सकता। यौन शिक्षा को हमेशा वास्तविकता के साथ प्रस्तुत करना चाहिए। यौन शिक्षा के अन्तर्गत यौनांगों का शिक्षण वनस्पतिशास्त्र की सहायता से फूल-पौधों के अंगों के माध्यम से कराया जा सकता है। इसी तरह शिक्षक सरल शब्दों में मानव यौनांगों के कार्यों,  मासिक स्त्राव, वीर्य के कार्यों को समझा सकते हैं। यौन शिक्षा के अन्तर्गत ही शिक्षक विभिन्न रोगों के लक्षण, कारण तथा उपचार का ज्ञान करा सकता है। किशोरों को शिक्षक निम्न ( STD: Sexually Transmitter Diseases ) रोगों से अवगत करायें-

इनमें (१) उपदंश (Syphilis), (२) सुजाक(Gonorrhoea), लिंफोग्रेन्युलोमा बेनेरियम (Lyphogranuloma Vanarium) तथा (४) रतिज व्राणाभ (Chancroid), (५) एड्स (AIDS) प्रधान हैं।

आज युवाओं में ही सबसे ज्यादा यौन रोग हो रहे हैं। वर्तमान में अमेरिका के सेंटर फ़ॉर डिसीज़ कंट्रोल Center for Disease Control के अध्ययनों से यह बात खुलकर सामने आयी है कि गोनोरिया Gonorrhea, क्लेमीडिया Chlamydia और सिफ़लिस syphilis के मामलों में लगातार बढ़त देखी जा रही है। आज यौन रोग से अधिकतर 13 से 19 साल की लड़कियाँ ज़्यादा प्रभावित हो रही हैं। आज चार में से एक लड़की यौन से प्रभावित है।

यौन-शिक्षा का पाठ्यक्रम ~: यौन शिक्षा का पाठ्यक्रम क्या अलग-अलग आयु स्तर तथा लड़के व लड़कियों के लिए पृथक-पृथक होनी चाहिए। पूर्व किशोरावस्था में बालकों को वीर्य , वीर्य का महत्व एवं कार्यों और बालिकाओं में उरोज, मासिक स्त्राव आदि के विषय में ज्ञान कराया जा सकता है। सामान्यतः यौन शिक्षण के अन्तर्गत निम्न विषयों का अध्ययन करना चाहिए -

1) यौनांगों की रचना

2) यौनांगों के कार्य 

3) यौनांगों का विकास 

4) स्वस्थ काम-भावनाओं का विकास 

5) यौनांगों से सम्बन्धित रोग,  लक्षण व उपचार 

6) किशोर -किशोरियों में स्वस्थ काम-जीवन व्यतीत करने की क्षमता विकसित करना।


कक्षानुसार हम भारतीय विद्यालयों में निम्न पाठ्यक्रम प्रारंभ कर सकते हैं -

कक्षा 7 में ~: (i) अध्याय शारीरिक ज्ञान (ii) परिवार का ज्ञान (iii) जननेन्द्रियों का सामान्य परिचय 

कक्षा 8 में ~: अध्याय (i) पारिवारिक सम्बन्धों का ज्ञान (ii) जननेन्द्रियों की कार्य प्रणाली (iii) संवेग तथा व्यवहार 

कक्षा 9 में ~: अध्याय (i) मानसिक स्वास्थ्य (ii) संवेगात्मक स्वास्थ्य (iii) स्त्री-पुरुष सम्बन्ध

कक्षा 10 में ~: अध्याय (i) मानसिक विकास (ii) स्त्री-जननेन्द्रियों की संरचना (iii) पुरुष जननेन्द्रियों की संरचना (iv) वृद्धि तथा उत्पादन 

कक्षा 11 में ~: अध्याय (i) परिवार-नियोजन (ii) स्वस्थ काम-सम्बन्ध (iii) किशोर-किशोरी सम्बन्ध

कक्षा 12 में ~: अध्याय (i) पारिवारिक जीवन (ii) सन्तान की देखभाल  (iii) वैवाहिक सम्बन्ध काम-व्यवहार 


यौन-शिक्षा कौन दे?

यौन शिक्षा निश्चित रूप से शिक्षक द्वारा ही प्रदान करनी चाहिए किन्तु यौन शिक्षा माता-पिता द्वारा सम्पादित की जानी चाहिए क्योंकि बालक अधिकांश समय माता-पिता के साथ व्यतीत करता है। यदि माता-पिता स्वयं इस शिक्षा से अनभिज्ञ हो कैसे शिक्षा दे सकते हैं। माता-पिता अपने छोटे बच्चों को अच्छे-बुरे स्पर्श एवं नजरों का ज्ञान अवश्य दें। कुछ लोगों का मानना है कि यौन शिक्षा डॉ द्वारा दी जानी चाहिए क्योंकि उसका यौनांग संरचना एवं कार्यों में विस्तृत अध्ययन होता है। यह बात कुछ हद तक सही है पर पूर्णतः सही नहीं है क्योंकि एक डाॅ को शिक्षा-सिद्धांतों का ज्ञान नहीं होता। ऐसे में यौन शिक्षा को देने का जो उद्देश्य बनना है वह पूरा नहीं होगा क्योंकि ब्लूम टैक्सटोनोमी के अनुसार किसी भी पाठ को पढ़ाते समय अनुदेशन उद्देश्य तीन स्तरों पर बनते है ज्ञानात्मक , भावात्मक एवं क्रियात्मक । इसलिए यह शिक्षा एक निपुण एवं विशेषज्ञ शिक्षक को ही देनी चाहिए यौन शिक्षा प्रदान करने वाले शिक्षक में निम्न गुण होने चाहिए -

1) शिक्षक को यौनांगों का पूर्ण ज्ञान हो।

2) शिक्षक के अध्यापन में अश्लीलता की भावना नहीं होनी चाहिए।

3) उसको विषय-वस्तु को ज्ञानार्जन का माध्यम बनाकर पढ़ाना चाहिए।

4) शरीर रचनाओं का सम्पूर्ण ज्ञान होना चाहिए।

5) यौगिक दृष्टि से शिक्षक स्वयं भी समायोजित होना चाहिए।

6) शिक्षक का स्वयं का नैतिक चरित्र उच्च होना चाहिए।

7) शिक्षक को शिशु पालन एवं रक्षा विधियों का ज्ञान होना चाहिए।

8) शिक्षक को सामान्य एवं विशिष्ट उद्देश्यों को पूरा कराते हुए यौन शिक्षा देनी चाहिए।

शिक्षण एक जटिल प्रक्रिया (Complex Nature of teaching)

शिक्षण के विषय में पढ़िए - 
"एक कटु सत्य शिक्षण में सबसे ज्यादा कठिनाई बच्चों को पढ़ाने में होती है बड़े बच्चों को तो केवल परामर्शन एवं निर्देशन की आवश्यकता होती है वे अध्यापक सबके गुरु हैं जो बच्चों को पढ़ाते हैं "

Complex Nature of teaching  ( शिक्षण एक जटिल प्रक्रिया )
जब मैंने खुद ने ये सुना कि शिक्षण एक जटिल प्रक्रिया है। सोचने लगी कैसे जटिल प्रक्रिया है किताब हाथ में हो और अपने कन्सेप्ट किल्यर हों, पढ़ाने में क्या है पर सच में इसका मतलब बी• एड• करते हुए समझ आया जब Lesson Plan बनाते समय Introduction से लेकर Evaluation तक सोचना पड़ता था कि पाठ की शुरुआत कहां से की जाये और कैसे की जाये।
"शिक्षण एक अन्तः प्रक्रिया है जो शिक्षक और छात्र के मध्य किसी विशिष्ट उद्देश्य को लेकर की जाती है।" एक शिक्षक को पढ़ाते समय कई कार्य करने होते हैं । 
जैसे -
1) Planning (नियोजन )
2) Organizing (संगठन) 
3) Leading/Presentation(अग्रसरण) 
4)Controlling/ Evaluation नियंत्रण एवं मूल्यांकन 

PLANNING -प्लानिंग करते समय  शिक्षक Instructional Objectives को देखते हैं जिसमें कुछ  प्रमुख हैं
1) Task Analysis - जिसमें Content Analysis, JobAnalysis & Skill Analysis को देखते हैं ।
2) शिक्षण उद्देश्यों को निश्चित करना। 
    (A- ज्ञानात्मक उद्देश्य - जिसमें सूचना, ज्ञान और तथ्यों की जानकारी आता है।
    B)- भावात्मक उद्देश्य - जिसमें अभिवृत्ति,रुचि तथा मूल्यों का विकास आता है।
    C)- क्रियात्मक उद्देश्य - इसमें  शारीरिक क्रियाओं तथा कौशलों का विकास आता है।
3) लर्निंग उद्देश्यों को लिखना।

ORGANIZING - इसमें पूर्वव्यवहार को ध्यान में रखते हैं 
1) उपयुक्त शिक्षण विधि का चयन 
2) उपयुक्त सम्प्रेषण "communication" विधि का चयन
3) उपयुक्त दृश्य-श्रृव्य सामग्री का चयन
     ●दृश्य सामग्री - ग्लोब, चित्र, ग्राफ आदि
     ● श्रृव्य सामग्री - टेपरिकाॅर्डर, रेडियो, ग्रामोफोन आदि
     ● दृश्य-श्रृव्य सामग्री - टेलीविजन,  कम्प्यूटर, फिल्म, प्रोजेक्ट आदि 

PRESENTATION - इसमें मुख्यतः दो बातों पर ध्यान दिया जाता है।
1) Selection of communication strategies
2) Organizing of Reinforcement & Motivation 

EVALUATION - अन्त में मूल्यांकन किया जाता है उस समय शिक्षक को यह ध्यान रखना होता है कि उसने जो पाठ जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए पढ़ाया है वह उद्देश्य पूरा हुआ या नहीं।

    अतः इन सभी बातों का ध्यान रखने एवं पढ़ाने के दौरान सही समय पर सही विधि को प्रयोग करने के कारण शिक्षण एक जटिल प्रक्रिया है। आज शिक्षण करते समय कठिनाइयों का सामना जो करना पड़ता है उसका मुख्य कारण है सही से पाठ की प्लानिंग नहीं करना। सबसे ज्यादा कठिनाई आती है Content Analysis करने में क्योंकि शिक्षक सही से पाठ का विश्लेषण नहीं कर पा रहे हैं ।इसीलिए सबसे पहले आवश्यक है पाठ को सबटाॅपिक में डिवाइड़ कीजिए फिर Sub- sub topic में डिवाइड़ कीजिए । ऐसे किसी भी पाठ को अच्छे से पढ़ाया जायेगा और कोई भी महत्वपूर्ण जानकारी देने से नहीं बचेगी। छात्रों को भी पाठ ज्यादा समय तक याद रहेगा।

Achieve Success through Time Management

      Who does not want to be successful in life? Everyone! Every individual has a desire to be successful. How to achieve success? The ques...